नोट - प्रिय पाठकों आपको बता दें कि इस पोस्ट को पढ़ते समय व्यक्ति के मन में श्री कृष्ण के प्रति अनेक प्रकार के प्रश्न उठ सकते है।
आपके उन प्रश्नों के उत्तर आपको इसी पोस्ट में मिल जाएंगे इसलिए आप पोस्ट को ध्यान से पढ़े क्योकि आधा अधूरा ज्ञान हानिकारक होता है।
फिर भी यदि किसी प्रश्न का उत्तर आपको न मिले तो आप निःसंकोच हम से पूछ सकते है।हम उत्तर देने की पूरी कोशिश करेंगे।
हर हर महादेव प्रिय पाठकों ! कैसे है आप लोग, आशा करते है आप सभी सकुशल होंगे। भगवान् शिव का आशीर्वाद हमेशा आपको प्राप्त हो।
एक अन्य महत्त्वपूर्ण बात है कि कृष्ण के साथ नाचने वाली सारी गोपिकाएँ अपने-अपने भौतिक शरीरों में नहीं थीं। वे कृष्ण के साथ अपने आध्यात्मिक शरीरों में नाच रही थीं। उनके पति तो यही समझते थे कि उनकी पत्नियाँ उनके पास सोई हुई हैं। गोपियों के तथाकथित पति कृष्ण की बहिरंगा शक्ति के प्रभाव से मोहित थे। अतः इसी शक्ति के कारण यह नहीं जान पाये थे कि उनकी पत्नियाँ कृष्ण के साथ नृत्य करने गई हुईं हैं। तो फिर दूसरे की पत्नियों के साथ नाचने का कृष्ण पर आरोप कैसा? गोपियों के शरीर, जो उनके पतियों के थे, शय्या पर लेटे थे, किन्तु उनके आध्यात्मिक अंश जो कृष्ण के थे, वे तो उनके साथ नाच रहे थे। कृष्ण परम पुरुष, पूर्ण आत्मा हैं और वे गोपियों के आध्यात्मिक शरीरों के साथ नृत्य करते थे। अतः कृष्ण पर किसी प्रकार का आरोप नहीं लगाया जा सकता।
एक अन्य महत्त्वपूर्ण बात है कि कृष्ण के साथ नाचने वाली सारी गोपिकाएँ अपने-अपने भौतिक शरीरों में नहीं थीं। वे कृष्ण के साथ अपने आध्यात्मिक शरीरों में नाच रही थीं। उनके पति तो यही समझते थे कि उनकी पत्नियाँ उनके पास सोई हुई हैं। गोपियों के तथाकथित पति कृष्ण की बहिरंगा शक्ति के प्रभाव से मोहित थे। अतः इसी शक्ति के कारण यह नहीं जान पाये थे कि उनकी पत्नियाँ कृष्ण के साथ नृत्य करने गई हुईं हैं। तो फिर दूसरे की पत्नियों के साथ नाचने का कृष्ण पर आरोप कैसा? गोपियों के शरीर, जो उनके पतियों के थे, शय्या पर लेटे थे, किन्तु उनके आध्यात्मिक अंश जो कृष्ण के थे, वे तो उनके साथ नाच रहे थे। कृष्ण परम पुरुष, पूर्ण आत्मा हैं और वे गोपियों के आध्यात्मिक शरीरों के साथ नृत्य करते थे। अतः कृष्ण पर किसी प्रकार का आरोप नहीं लगाया जा सकता।
इस पोस्ट में आप पाएंगे -In this post you will find -
रासनृत्य
जुगुप्सितम् का क्या अर्थ है ?
आप्तकाम का अर्थ क्या है ?
यदुपति का क्या अर्थ है?
सुव्रत का क्या अर्थ है ?
सामान्य मनुष्यों को रासलीला का अनुकरण क्यों नहीं करना चाहिए ?
श्री कृष्ण पर आरोप क्यों ?
भौतिक विषयवासना क्या है ?
अनुशृणुयात् शब्द का अर्थ क्या है ?
भक्तिम् तथा पराम् का अर्थ क्या है ?
रासनृत्य की रात को ब्रह्मा की रात क्यों कहा जाता है ?
रासनृत्य
प्रिय पाठकों !पिछली पोस्ट में हमने श्री कृष्ण के गोपियों के पास वापस आने के बारे में पढ़ा,अब इस पोस्ट में हम उससे आगे की कथा उनके रासनृत्य के बारे में जानेंगे।
रसनृत्य की रात्रि को ब्रह्मा की रात्रि क्यों कहा जाता है(कृष्ण लीला) |
दोस्तों !जब भगवान् श्रीकृष्ण वापस गोपियों के पास आये तो गोपियाँ उनके ऐसे सान्त्वनाप्रदायक वचनों को सुनकर परम प्रसन्न हुई। गोपियाँ भगवान् के वचनों को सुनकर ही नहीं, अपितु उनके हाथों तथा पाँवों का स्पर्श करके भी परम वियोग के दुख से मुक्त हो गईं। तत्पश्चात् भगवान् ने रासनृत्य (रासलीला) प्रारम्भ किया।
जब कोई अनेक लड़कियों के बीच में नाचता है तो उसे रासनृत्य कहते हैं। अतः कृष्ण ने तीनों लोकों की परम सुन्दरी तथा भाग्यशालिनी लड़कियों के मध्य में नाचना प्रारम्भ किया।
कृष्ण के प्रति आसक्त रहने वाली वृन्दावन की गोपियाँ कृष्ण के साथ हाथ से हाथ मिलाकर नाचने लगीं। कृष्ण के रासनृत्य की तुलना बालडांस या सोसाइटी डांस जैसे किसी संसारी नृत्य से कभी नहीं की जा सकती।
रासनृत्य नितान्त आध्यत्मिक क्रिया है। इस तथ्य की स्थापना के लिए परम योगी कृष्ण ने अपने आपको अनेक रूपों में विस्तारित किया और वे प्रत्येक गोपी के पास खड़े हो गये।
अपने दोनों ओर खड़ी गोपियों के कंधों पर अपने हाथ रख कर कृष्ण नाचने लगे। गोपियों को कृष्ण के योगिक विस्तार नहीं दिख पाये, क्योंकि वे प्रत्येक के साथ अकेले-अकेले प्रकट हुए। प्रत्येक गोपी सोच रही थी कि कृष्ण केवल उसी के साथ नाच रहे हैं।
इस अद्भुत नृत्य को स्वर्ग के निवासी अपने-अपने विमानों में उड़ कर देखने लगे, क्योंकि वे गोपियों के साथ कृष्ण के नृत्य को देखने के लिए उत्सुक थे। गंधर्व तथा किन्नर गाने लगे और अपनी अपनी पत्नियों समेत सारे गंधर्व नृत्य-मण्डली पर पुष्पवर्षा करने लगे।
गोपियों तथा कृष्ण के नाचने से उनके नूपुरों, आभूषणों तथा कंगनों से रुनझुन की मधुर संगीत रूपी आवाज उत्पन्न हो रही थी। कृष्ण ऐसे प्रतीत हो रहे थे मानो रत्नजटित स्वर्णिम हार के मध्य कोई नीलमणि सुशोभित हो।
कृष्ण तथा गोपियों के नृत्य के समय उनके अद्वितीय शारीरिक अंग दिखाई पड़ रहे थे। उनके पाँवों की गति, उनका एक दूसरे पर हाथ रखना, उनकी भौहों की मटकन, उनकी मुस्कान, गोपियों के उरोजों, वस्त्रों, कुण्डलों, कपोलों तथा फूल से गूंथे केशों की गतियाँ- जब वे नाच-गा रहे थे तो-सबों को मिला कर ऐसा लग रहा था मानो बादल, गर्जन, हिमपात तथा बिजली हो।
कृष्ण के शरीर के अंग बादलों के समूह के समान रूप रहे थे। गोपियों के गीत गर्जन के समान थे। गोपियों की सुन्दरता आकाश में बिजली की छुति के समान थी और उनके मुखों पर उभरी पसीने की बूँद जैसी लग रही थीं। इस प्रकार गोपियाँ तथा कृष्ण पूर्ण रूप से नृत्य में लगे रहे।
कृष्ण के समागम से अधिकाधिक आनन्द प्राप्त करने की इच्छा से गोपियों की ग्रीवाएँ लालिमा से युक्त हो गई। उन्हें संतुष्ट करने के लिए, कृष्ण उनके गाने के साथ-साथ ताल देने लगे। वस्तुतः सारा संसार कृष्ण के गायन से ओत-प्रोत है, किन्तु विभिन्न जीव उसे भिन्न-भिन्न रूपों में सराहते हैं।
इसकी पुष्टि भगवद्गीता में हुई है- ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजामि अहम्। कृष्ण नाच रहे हैं तथा प्रत्येक जीवात्मा भी नाच रहा है, किन्तु आध्यात्मिक तथा भौतिक जगत के नृत्यों में अन्तर होता है। इसे चैतन्य-चरितामृत के लेखक ने व्यक्त किया है और कहा है कि कृष्ण नर्तकाचार्य हैं और प्रत्येक व्यक्ति उनका सेवक है।
प्रत्येक व्यक्ति कृष्ण के नृत्य का अनुकरण करने का प्रयास कर रहा है। जो लोग कृष्णभावनाभावित हैं, कृष्ण के नृत्य का ठीक से अनुसरण कर पाते हैं; वे स्वतंत्र रूप से नाचने का प्रयत्न नहीं करते। किन्तु जो भौतिक संसार में हैं, वे भगवान् के रूप में नाचते और कृष्ण का अनुकरण करने का प्रयास करते हैं।
सारे जीव कृष्ण की माया के निर्देश से नाच रहे हैं और यह सोचते हैं कि वे कृष्ण के तुल्य हैं। किन्तु यह सही नहीं है। कृष्णभावनामृत में यह भ्रम नहीं होता, क्योंकि कृष्णभावनाभावित व्यक्ति जानता है कि कृष्ण परम स्वामी हैं और हर व्यक्ति उनका दास है।
मनुष्य को कृष्ण का अनुकरण करने या श्रीभगवान् के तुल्य बनने के लिए नहीं, अपितु कृष्ण को प्रसन्न करने के लिए नाचना होता है। गोपियाँ कृष्ण को प्रसन्न करना चाहती थीं, अतः ज्योंही कृष्ण गाने लगे तो सारी गोपियाँ दुहरा कर उन्हें प्रोत्साहित करती हुई बोलीं, "बहुत अच्छा, बहुत अच्छा।"
कभी-कभी वे कृष्ण की प्रसन्नता के लिए स्वयं गातीं और कृष्ण उनकी प्रशंसा करते। वे हुए जब कुछ गोपियाँ नाचने तथा अपने शरीर थिरकाने से थक गईं, तो उन्होंने अपनी बाहें कृष्ण के कंधों पर रख दीं। तब उनके केशपाश शिथिल हो गये और फूल जमीन पर गिर पड़े।
जब उन्होंने अपनी बाँहों को कृष्ण के कंधों पर रखा, तो वे उनके शरीर की सुंगधि से, जो कमल से, अन्य सुगन्धित पुष्पों से तथा चन्दनलेप से निकल रही थी, अभिभूत हो गईं। वे उनके आकर्षण से फूल उठीं और उन का चुम्बन करने लगीं।
कुछ गोपियों ने कृष्ण के कपोलों से अपने कपोल सटा दिये और कृष्ण उन्हे अपने मुख की चबाई सुपारी देने लगे, जिसे उन्होंने चुम्बन लेकर अत्यन्त हर्ष के साथ -ग्रहण किया। इस प्रकार सुपारी के ग्रहण करने से गोपियाँ आध्यात्मिक रूप से ऊपर उठ गई।
बहुत देर तक नाचने तथा गाने से गोपियों थक गई। कृष्ण उनके पास ही नाच रहे थे। अपनी थकान मिटाने के लिए गोपियों ने उनका हाथ लेकर अपने उन्नत उरोजों पर रख लिया। कृष्ण का हाथ तथा गोपियों के उरोज शाश्चत रूप से शुभ हैं; अतः जब दोनों मिल गये, तो वे आध्यात्मिक रूप से बहुत ऊपर उठ गये।
गोपियों ने लक्ष्मीपति कृष्ण के साथ इतना आनन्द लूटा कि वे यह भूल गई कि संसार में उनके कोई अन्य पति भी हैं और कृष्ण के साथ नाचने, गाने तथा उनकी भुजाओं द्वारा आलिंगित होकर वे सर्वस्व भूल गईं।
श्रीमद्भागवत में कृष्ण के साथ रासनृत्य करती गोपियों के सौन्दर्य का वर्णन इस प्रकार मिलता है उनके दोनों कानों के ऊपर कमल के फूल थे और उनके मुख चन्दन लेप से सुसज्जित थे। वे तिलक लगाये थीं और उनके स्मित मुखों पर पसीने की बूँदें थीं।
उनके कंगनों से और पैरों से नूपुरों की ध्वनि आ रही थी। उनके केश के फूल कृष्ण के चरणकमलों पर गिर रहे थे और वे अत्यन्त संतुष्ट थे।" जैसाकि ब्रह्म-संहिता में कहा गया है, ये समस्त गोपियाँ कृष्ण की ह्लादिनी शक्ति की विस्तार हैं।
अपने हाथों से उनका स्पर्श करते तथा उनकी मोहक आँखों को देखते हुए कृष्ण गोपियों के साथ वैसा ही आनन्द लूट रहे थे जिस तरह एक बालक शीशे में अपने शरीर का प्रतिबिम्ब देखकर खेलने का आनन्द पाता है।
जब कृष्ण गोपियों के शरीर के विभिन्न अंगों का स्पर्श करते, तो गोपियाँ आध्यात्मिक शक्ति से परिपूरित हो उठतीं। वे चाह कर भी अपने वस्त्रों को सँभाल न पातीं। उनके केश तथा वस्त्र बिखर गये और उनके आभूषण ढीले पड़ गये क्योंकि कृष्ण के संग के कारण वे अपने आपको भूल गई।
इस प्रकार जब कृष्ण रासनृत्य में गोपियों के संग का आनन्द ले रहे थे, तो देवता तथा उनकी पत्नियाँ अत्यन्त विस्मित होकर आकाश में एकत्र होने लगे। चन्द्रमा भी एक काम-मोहित होकर नृत्य देखने लगा और आश्चर्य से चकित रह गया।
गोपियों ने देवी कात्यायनी से प्रार्थना की थी कि उन्हें कृष्ण पति रूप में प्राप्त हों। अब कृष्ण स्वयं को गोपियों की संख्या के अनुरूप विस्तारित करके तथा पति-रूप में उनका भोग करके उनकी उस इच्छा की पूर्ति कर रहे थे।
श्री शुकदेव गोस्वामी ने कहा है कि कृष्ण आत्मनिर्भर हैं, अर्थात् वे आत्माराम हैं। उन्हें अपनी तुष्टि के लिए किसी की भी आवश्यकता नहीं रहती। चूंकि गोपियों ने उन्हें पति-रूप में चाहा था, इसलिए वे उनकी इच्छापूर्ति कर रहे थे।
जब कृष्ण ने देखा कि गोपियाँ उनके साथ नाचने के कारण थक गई हैं, तो वे तुरन्त अपने हाथ उनके मुखों पर फेरने लगे जिससे उनकी थकान दूर हो जाये। कृष्ण के इस सौजन्य का बदला चुकाने के लिए वे प्रेमपूर्वक उनकी ओर देखने लगीं।
वे कृष्ण के शुभ कर-स्पर्श से अतीव प्रसन्न थीं। हँसी से युक्त उनके कपोल सुन्दरता से चमक उठे और वे परमानन्दित होकर कृष्ण का यशोगान करने लगीं। शुद्ध भक्तों के रूप में गोपियों ने कृष्ण-संग का जितना सुख भोगा उतनी ही अधिक वे उनकी महिमा से परिचित होती गईं और इस प्रकार उन्होंने उनका बदला चुकाया।
वे कृष्ण की दिव्य लीलाओं का यशोगान करके उन्हें प्रसन्न करना चाहती थीं। कृष्ण भगवान् हैं, स्वामियों के भी स्वामी हैं और गोपियाँ अपने ऊपर असामान्य कृपा प्रदर्शन के लिए उनकी पूजा करना चाह रही थीं।
रासनृत्य की थकान मिटाने के लिए गोपियाँ तथा कृष्ण यमुना के जल में प्रविष्ट हुए। कृष्ण के शरीर का आलिंगन करने से गोपियों के गले की कुमुदिनी पुष्प की मालाएँ खण्ड-खण्ड हो गई थीं और उनके वक्षस्थलों पर लेपित कुंकम से रगड़ कर वे पुष्प लाल-लाल हो गये।
भौरें इन फूलों से मधु प्राप्त करने के लिए मँडरा रहे थे। कृष्ण गोपिकाओं के साथ यमुना जल में उसी प्रकार प्रविष्ट हुए जिस प्रकार हाथी अपनी अनेक संगिनी हथिनियों के साथ जल के पूरित ताल में प्रवेश करता है।
रसनृत्य की रात्रि को ब्रह्मा की रात्रि क्यों कहा जाता है(कृष्ण लीला) |
जल में क्रीड़ा करते और एक दूसरे के संग का आनन्द लूटते तथा रासनृत्य के श्रम को दूर करते हुई गोपियाँ तथा कृष्ण दोनों ही अपने-अपने वास्तविक स्वरूप को भूल गये। गोपियाँ कृष्ण के शरीर पर पानी उलीचने लगीं और लगातार हँसती रही।
कृष्ण इसका सुख लूट रहे थे। जब कृष्ण इस तरह की हँसी तथा जल उलीचे जाने से हर्षित हो रहे थे, तो देवता उन पर स्वर्ग से पुष्पों की वर्षा करने लगे। इस तरह देवताओं ने परम भोक्ता कृष्ण के अद्वितीय रास-नृत्य की तथा यमुना जल में गोपियों के साथ उनकी लीला की प्रशंसा की।
तत्पश्चात् भगवान् कृष्ण तथा गोपियाँ जल से बाहर आए और यमुना तट पर टहलने लगे जहाँ पर उत्तम मन्द पवन बह रही थी और अपने साथ जल तथा स्थल में उगे विविध पुष्पों की सुगन्धि लिए था। यमुना तट पर घूमते हुए कृष्ण ने विविध प्रकार की कविताएँ सुनाईं। इस प्रकार शरद् की शीतल चाँदनी में गोपियों ने कृष्ण के संग आनन्द लूटा।
शरद् ऋतु गोपियों 38% में कामवासना विशेष रूप से तेज़ हो जाती है, किन्तु कृष्ण तथा गोपियों के साहचर्य की विचित्रता यह थी कि कामवासना का कहीं नाम न था। जैसाकि भागवत में शुकदेव गोस्वामी ने स्पष्ट कहा है-अवरुद्ध सौरत:- अर्थात् कामोत्तेजना पूर्णतया वश में थी।
गोपियों के साथ कृष्ण के नृत्य तथा इस भौतिक जगत में सामान्य नृत्य के मध्य अन्तर है। रास-नृत्य तथा कृष्ण और गोपियों के कार्यकलापों के विषय में और आगे की प्रान्तियों को स्पष्ट करने के लिए श्रीमद्भागवत के श्रोता महाराज परीक्षित ने शुकदेव गोस्वामी से कहा, "कृष्ण का आविर्भाव इस धरा पर धर्म की स्थापना तथा अधर्म की प्रमुखता को दमन करने के लिए हुआ था।
किन्तु कृष्ण तथा गोपियों के आचरण से भौतिक जगत में अधर्म को प्रोत्साहन मिल सकता है। मुझे यही आश्चर्य हो रहा है कि वे अर्धरात्रि में अन्यों की पत्नियों के साथ ऐसा सुखोपभोग करने का कार्य करते रहे।"
महाराज परीक्षित के इस कथन को शुकदेव गोस्वामी ने अत्यधिक सराहा। इसका उत्तर उन मायावादी निर्विशेषवादियों के गर्हित कार्यों की सम्भावना व्यक्त करता है, जो अपने आपको कृष्ण मानकर तरुण बालाओं तथा स्त्रियों के संग सुखोपभोग करते रहते हैं।
मूलभूत वैदिक आदेश किसी व्यक्ति को अपनी पत्नी के अतिरिक्त अन्य किसी स्त्री के साथ रमण करने की अनुमति प्रदान नहीं करते। कृष्ण द्वारा गोपियों की सराहना स्पष्ट रूप से इन सिद्धान्तों का अतिक्रमण लगती थी।
महाराज परीक्षित ने शुकदेव गोस्वामी से सारी स्थिति समझ ली थी, फिर भी रास-नृत्य में कृष्ण तथा गोपियों की दिव्य प्रकृति को और अधिक स्पष्ट करने के लिए उन्होंने आश्चर्य व्यक्त किया।
जुगुप्सितम् का क्या अर्थ है ?
प्राकृत सहजियों द्वारा स्त्रियों का अनियंत्रित संसर्ग रोकने के लिए यह अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। महाराज परीक्षित ने अपने कथन में कई महत्त्वपूर्ण शब्दों का प्रयोग किया है। जिनके स्पष्टीकरण की आवश्यकता है। पहला शब्द है जुगुप्सितम् जिसका अर्थ है 'गर्हित'यानि निंदित ,घृणित कार्य ।
महाराज परीक्षित का पहला सन्देह इस प्रकार था- भगवान् कृष्ण श्री भगवान् हैं, जिन्होंने धर्म-स्थापना के लिए अवतार लिया था, तो फिर अर्धरात्रि में पराई स्त्रियों के साथ मिल कर वे नृत्य, आलिंगन तथा चुम्बन का आनन्द क्यों लूटते थे?
वैदिक आदेशों के अनुसार इसकी अनुमति नहीं है। यही नहीं, जब सर्वप्रथम गोपियाँ उनके पास आई थीं, तो उन्होंने उनसे अपने-अपने घर लौट जाने का उपदेश दिया था। वेदों के अनुसार पराई स्त्रियों या तरुण बालाओं को बुलाकर उनके साथ नृत्य का आनन्द लूटना निश्चय ही गर्हित है; तो फिर कृष्ण ने ऐसा क्यों किया?
आप्तकाम का अर्थ क्या है ?
यदुपति का क्या अर्थ है?
किन्तु महाराज परीक्षित ने फिर एक अन्य शब्द का प्रयोग किया। यह है यदुपति जिसका अर्थ है कि वे यदुवंश के सर्वाधिक सम्माननीय व्यक्ति हैं। यदुवंशी राजा अत्यन्त पवित्र माने जाते थे और उनके वंशज भी वैसे ही थे। उस परिवार में जन्म लेकर भला कृष्ण किस प्रकार गोपियों द्वारा प्रेरित हुए होंगे?
अतः यह निष्कर्ष निकला कि कृष्ण के लिए कोई भी गर्हित काम कर पाना सम्भव न था। किन्तु महाराज परीक्षित को सन्देह था कि कृष्ण ने ऐसा क्यों किया? उनका वास्तविक प्रयोजन क्या था?
सुव्रत का क्या अर्थ है ?
शुकदेव गोस्वामी को सम्बोधित करते हुए महाराज परीक्षित ने जिस अन्य शब्द का प्रयोग किया, वह था सुव्रत, जिसका अर्थ है "पुण्य कर्म करने का व्रत लेना।" शुकदेव गोस्वामी एक शिक्षित ब्रह्मचारी थे, अतः विषय-भोग में उनका रत होना सम्भव न था।
ब्रह्मचारियों के लिए यह नितान्त वर्जित है, तो शुकदेव गोस्वामी जैसे ब्रह्मचारी के विषय में क्या कहना! किन्तु जिन परिस्थितियों में रास-नृत्य हुआ था वे अत्यन्त सन्देहास्पद थीं, अतः महाराज परीक्षित ने स्पष्टीकरण के लिए शुकदेव गोस्वामी से पूछा।
शुकदेव गोस्वामी ने तुरन्त उत्तर दिया कि परम नियन्ता द्वारा धार्मिक सिद्धान्तों का अतिक्रमण उनकी महान् शक्ति को प्रमाणित करता है। उदाहरणार्थ, अग्नि किसी भी गर्हित वस्तु को जला सकती है। यह अग्नि की श्रेष्ठता का प्राकट्य है।
इसी प्रकार सूर्य मूत्र या मल से जल का शोषण कर सकता है, संदूषणरहित हो जाता है।आपस में मिल जाता है किन्तु सूर्य कलुषित यानी अपवित्र नहीं होता, अपितु धूप के प्रभाव से प्रदूषित तथा संदूषित स्थान संदूषणरहित हो जाता है।
कोई मनुष्य चाहे तो यह भी तर्क कर सकता है कि चूँकि कृष्ण सर्वोच्च प्रमाण हैं अतः उनके कर्मों का पालन करना चाहिए। इस तर्क के उत्तर में शकदेव गोस्वामी ने स्पष्ट कहा कि ईश्वर अर्थात् परम नियन्ता कभी-कभी अपने ही आदेशों का अतिक्रमण यानी उलंग्घन कर सकते हैं।
किन्तु यह केवल स्वयं नियामक के लिए सम्भव है, उसके अनुयायियों के लिए नहीं। नियन्ता द्वारा किये गये असामान्य तथा असाधारण कार्यों का कभी-भी अनुकरण नहीं किया जा सकता। शुकदेव गोस्वामी ने आगाह किया है कि जो बद्धजीव अपने वश में नहीं हैं, उन्हें नियन्ता के असामान्य कार्यों के अनुकरण को सोचना भी नहीं चाहिए।
एक मायावादी चिन्तक झूठे ही अपने को ईश्वर या कृष्ण होने का दावा कर सकता है, किन्तु वह वास्तव में कृष्ण की भाँति कार्य सम्पन्न नहीं कर सकता। वह अपने अनुयायियों को झूठे ही रासनृत्य की नकल करने के लिए मना सकता है, किन्तु वह गोवर्धन पर्वत को नहीं उठा सकता।
भूतकाल में हमें मायावादी पाखण्डियों के अनेक अनुभव प्राप्त हैं, जहाँ उन्होंने कृष्ण बन कर रासलीला का भोग करने के उद्देश्य से अपने अनुयायियों को धोखा दिया है। कई बार तो सरकार ने उनकी तलाशी ली, उन्हें बन्दी बनाया और दण्ड दिया।
उड़ीसा में ठाकुर भक्तिविनोद ने एक तथाकथित विष्णु के अवतार को दण्डित किया, जो तरुणियों के साथ रासलीला रचाने की नकल करता था। उसके तथाकथित अवतार के विरुद्ध अनेक शिकायतें थीं। उस समय भक्तिविनोद ठाकुर जिलाधीश थे और सरकार ने उन्हें इस धूर्त को दण्डित करने के लिए नियुक्त किया था। उन्होंने उसे कठोर दण्ड दिया।
सामान्य मनुष्यों को रासलीला का अनुकरण क्यों नहीं करना चाहिए ?
रासलीला का अनुकरण कोई नहीं कर सकता। शुकदेव गोस्वामी तो यहाँ तक आगाह करते हैं कि कोई भी इसका अनुकरण करने का विचार तक न करे।
वे विशेषरूप से उल्लेख करते हैं कि यदि कोई मूर्खतावश कृष्ण की रासलीला का अनुकरण करने का यत्न करता है, तो वह उसी तरह मरेगा जिस प्रकार शिवजी के विषपान का अनुकरण करने की इच्छा करने वाला व्यक्ति मरता है।
शिवजी ने विषपान किया और उसे अपने कंठ में रखा जिससे उनका कंठ नीला पड़ गया, इसीलिए शिवजी नीलकण्ठ कहलाते हैं। किन्तु यदि कोई सामान्य पुरुष विषपान करे या गाँजा पीकर शिवजी का अनुकरण करे, तो वह तुरन्त ही मर जाएगा और विनष्ट हो जाएगा। गोपियों के साथ कृष्ण का यह व्यवहार विशिष्ट परिस्थितियों में था।
अधिकांश गोपियाँ अपने पूर्वजन्म में महान् ऋषि थीं, जो वेदों के अध्ययन में पटु(निपुण ) थी और जब भगवान् कृष्ण भगवान् रामचन्द्र के रूप में अवतरित हुए थे, तो वे उनके साथ सुखोपभोग करना चाहती थीं।
भगवान् रामचन्द्र ने उन्हें वर दिया था कि जब वे कृष्ण रूप में अवतार लेंगे, तो उनकी इच्छाएँ पूरी होंगी। अतः भगवान् कृष्ण के अवतार का सुखोपभोग करने की गोपियों की इच्छा अत्यन्त दीर्घकाल से बनी हुई थी। अत: कृष्ण को अपना पति बनाने के लिए वे देवी कात्यायनी के पास गई।
ऐसे अन्य अनेक उदाहरण है, जो कृष्ण की परम सत्ता को प्रमाणित करते हैं और यह प्रदर्शित करते हैं कि वे भौतिक जगत के विधि-विधानों से बंधे नहीं है। विशिष्ट परिस्थितियों में अपने भक्तों पर कृपा करने के लिए वे इच्छानुसार कार्य करते हैं। किन्तु वे ही ऐसा कर सकते हैं, क्योंकि वे परम नियन्ता है।
सामान्य लोगों को चाहिए कि कृष्ण द्वारा भगवद्गीता में दिये उपदेशों का पालन करें और रासलीला द्वारा कभी भी कृष्ण का अनुकरण करने की कल्पना तक न करें।
कृष्ण द्वारा गोवर्धन पर्वत का उठाया जाना, पूतना जैसी राक्षसी का वध करना तथा अन्य घटनाएँ स्पष्ट रूप से उनके अलौकिक कार्य हैं। इसी प्रकार रासलीला भी असामान्य कार्य है, जिसका अनुकरण सामान्य व्यक्ति नहीं कर सकता।
अर्जुन जैसे अपनी वृत्ति में लगे हुए सामान्य व्यक्ति को चाहिए कि वह कृष्ण को प्रसन्न करने के लिए अपना कर्तव्य करे; यही उसके सामर्थ्य की बात है। अर्जुन योद्धा था और कृष्ण की इच्छा थी कि उनको प्रसन्न करने के लिए वह युद्ध करे।
पहले तो अर्जुन इसके लिए तैयार नहीं हुआ, किन्तु बाद में वह राजी हो गया। सामान्य पुरुषों को कर्तव्य (कर्म) निबाहने होते हैं। उन्हें कूद कर कृष्ण का अनुकरण करके रासलीला में प्रवृत्त होकर अपना विनाश नहीं कर लेना चाहिए।
मनुष्य को यह निश्चित रूप से जान लेना चाहिए कि गोपियों के वरदानस्वरूप कृष्ण ने जो कुछ भी किया, उसमें उनका कोई निजी स्वार्थ नहीं था। जैसाकि भगवद्गीता में कहा गया है-न मां कर्माणि लिम्पन्ति-कृष्ण को कभी अपने कर्म-फल का सुख या दुख नहीं भोगना पड़ता।
अतः वे कभी अधर्म का आचरण नहीं करते। वे सभी धार्मिक कर्मों तथा सिद्धान्तों से परे हैं। उन्हें प्रकृति के त्रिगुण छू तक नहीं पाते। वे समस्त जीवों के परम नियन्ता हैं, चाहे वह मानव समाज हो, स्वर्ग में देव-समाज हो या जीवों की अघम योनियाँ हों। वे भौतिक प्रकृति के भी परम नियन्ता हैं, अतः उन्हें धर्म या अधर्म से कुछ भी लेना-देना नहीं रहता।
शुकदेव गोस्वामी ने यह भी निष्कर्ष निकाला कि ऋषिगण तथा भक्तजन, जो समस्त बद्ध जीवन से मुक्त हैं, अपने अन्तःकरण में कृष्ण को धारण करके इस कल्मषग्रस्त संसार में कहीं-भी स्वतंत्र रूप से विचरण कर सकते हैं।
इस प्रकार वे प्रकृति के अन्तर्गत गुणों के सुख तथा दुख के नियमों के वश में नहीं होते। तो फिर भला कृष्ण के लिए कर्म के नियमों के वशीभूत होना क्यों कर सम्भव है, जब वे अपनी अन्तरंगा शक्ति से प्रकट होते हैं?
भगवद्गीता में भगवान् स्पष्ट कहते हैं कि जब भी वे अवतरित होते हैं, वे अपनी अन्तरंगा शक्ति से अवतरित होते हैं, वे सामान्य जीव की भाँति कर्म के नियमों द्वारा शरीर धारण करने के लिए बाध्य नहीं किए जाते हैं। अन्य प्रत्येक जीव को अपने पूर्वजमों के अनुसार एक विशेष प्रकार का शरीर धारण करने के लिए बाध्य होना पड़ता है।
किन्तु जब कृष्ण अवतरित होते हैं, तो उन पर शरीर किसी पूर्वकर्म के द्वारा लादा नहीं जाता। उनका शरीर उनके दिव्य आनन्द की लीलाओं का वाहन है, जो उनकी अन्तरंगा शक्ति द्वारा की जाती हैं। उन पर कर्म के नियमों का कोई बन्धन नहीं है।
मायावादी अद्वैतवादी को प्रकृति के नियमों द्वारा बाध्य होकर फिर से कोई-न-कोई शरीर धारण करना पड़ता है, अतः उसका यह दावा कि वह कृष्ण या ईश्वर से एकाकार है, केवल सैद्धान्तिक है। ऐसे लोग जो अपने को कृष्ण के तुल्य बतलाते हैं और रास-लीला में प्रवृत्त होते हैं सामान्य लोगों के लिए घातक स्थिति उत्पन्न करते हैं।
भगवान् श्रीकृष्ण पहले से गोपियों तथा उनके पतियों के शरीर के भीतर परमात्मा रूप में उपस्थित थे। वे सम्पूर्ण जीवों के मार्गदर्शक हैं, जैसाकि कठोपनिषद् में कहा गया है-नित्यो नित्यानां चेतनश्चेतनानाम्। परमात्मा जीवात्मा को कर्म करने के लिए निर्देश देता है; परमात्मा ही कर्त्ता तथा सभी कर्मों का साक्षी है।
भगवद्गीता में पुष्टि की गई है कि कृष्ण सबों के हृदय में स्थित हैं और उन्हीं से सारे कर्म, स्मृति तथा विस्मृति उत्पन्न होते हैं। वे ही आदि पुरुष हैं, जो वैदिक ज्ञान द्वारा ज्ञेय हैं। वे वेदान्त दर्शन के रचयिता हैं तथा उसके पूर्ण ज्ञाता हैं।
तथाकथित वेदान्ती तथा मायावादी विद्वान कृष्ण को यथारूप में नहीं समझ पाते; वे कृष्ण के कार्यों का अस्वाभाविक रूप से अनुयायियों को गुमराह करते करते अनुकरण हुए है। परमात्मास्वरूप कृष्ण जन-जन के शरीर में व्याप्त हैं, अतः यदि वे किसी को देखते हैं या किसी का आलिंगन करते हैं, तो अनौचित्य का प्रश्न नहीं उठता।
कोई यह प्रश्न कर सकता है कि यदि कृष्ण आत्माराम हैं, तो उन्होंने गोपियों के साथ ऐसी लीलाएँ क्यों की हैं, जो विश्व के आदर्शवादियों को विक्षुब्ध करती हैं? इसका उत्तर यही है कि ऐसे कार्यों से पतित बद्धजीवों पर विशिष्ट कृपा प्रदर्शित होती है।
गोपियाँ भी उनकी अन्तरंगा शक्ति की विस्तार हैं, किन्तु चूँकि श्रीकृष्ण रासलीला करना चाहते थे, अतः गोपियाँ भी सामान्य प्राणियों के रूप में प्रकट हुई।
भौतिक जगत में अन्ततोगत्वा आनन्द का प्राकट्य स्त्री तथा पुरुष के मध्य कामासक्ति के रूप में होता है। पुरुष स्त्री के द्वारा मोहित होने के लिए जीवित है और स्त्री पुरुष के द्वारा मोहित होने के लिए है।
यही भौतिक जीवन का मूल सिद्धान्त है ज्यों-ज्यों ये आकर्षण संयुक्त होते जाते हैं, त्यों-त्यों लोग भौतिक जगत में और अधिक उलझते जाते हैं। कृष्ण ने उन पर विशेष कृपा दर्शन के उद्देश्य से रास लीला नृत्य का प्रदर्शन किया।
यह बद्धजीवों को मोहित करने के लिए, है। चूँकि वे काम-विद्या के प्रति अत्यधिक आकृष्ट रहते हैं, अत: कृष्ण के साथ वे वैसा ही जीवन भोगते हैं और इस तरह भौतिक अवस्था मुक्त हो जाते हैं।श्रीमद्भागवत के द्वितीय स्कन्ध में महाराज परीक्षित यह भी बताते हैं कि भगवान् कृष्ण के कार्य तथा लीलाएँ बद्धजीवों के लिए ओषधितुल्य हैं।
यदि वे कृष्ण के विषय में केवल श्रवण करते हैं, तो वे भौतिक रोग से मुक्त हो जाते हैं। वे लोग भौतिक सुखोपभोग तथा कामशास्त्र सम्बन्धी पुस्तकें पढ़ने के आदी होते हैं, किन्तु गोपियों के साथ कृष्ण की इन दिव्य लीलाओं के श्रवण मात्र से वे भौतिक कल्मष से मुक्त हो जाएँगे।
शुकदेव गोस्वामी ने यह भी बताया है कि किससे और किस प्रकार श्रवण करना चाहिए। सबसे बड़ी कठिनाई तो यह है कि सारा जगत मायावादियों से भरा पड़ा है और जब वे श्रीमद्भागवत के पेशेवर वाचक बन जाते हैं और जब लोग मायावाद दर्शन के प्रभाव को जाने बिना ऐसे लोगों से कथा सुनते हैं, तो वे संभ्रमित हो जाते हैं।
जनसामान्य के बीच रासलीला सम्बन्धी विवेचना की अनुमति नहीं दी जाती, क्योंकि लोग मायावादी दर्शन से प्रभावित हो जाते हैं, किन्तु यदि कोई उन्नत चेतना यानी श्रेष्ठ बुद्धि वाला ज्ञानी व्यक्ति यह विवेचना करता है, तो श्रोतागण निश्चय ही क्रमश: कृष्णभावनामृत को प्राप्त होते हैं अथार्त कृष्ण की भक्ति को प्राप्त करते है और भौतिक कल्मषग्रस्त जीवन से मुक्त हो जाते हैं।
श्री कृष्ण पर आरोप क्यों ?
एक अन्य महत्त्वपूर्ण बात है कि कृष्ण के साथ नाचने वाली सारी गोपिकाएँ अपने-अपने भौतिक शरीरों में नहीं थीं। वे कृष्ण के साथ अपने आध्यात्मिक शरीरों में नाची रही थीं। उनके पति तो यही समझते थे कि उनकी पत्नियाँ उनके पास सोई हुई हैं।
गोपियों के तथाकथित पति कृष्ण की बहिरंगा शक्ति के प्रभाव से मोहित थे। अतः इसी शक्ति के कारण यह नहीं जान पाये थे कि उनकी पत्नियाँ कृष्ण के साथ नृत्य करने गई हुईं हैं। तो फिर दूसरे की पत्नियों के साथ नाचने का कृष्ण पर आरोप कैसा?
"कृष्ण कौन हैं? कृष्ण के साथ यह किशोरी कौन है?
गोपियों के शरीर, जो उनके पतियों के थे, शय्या पर लेटे थे, किन्तु उनके आध्यात्मिक अंश जो कृष्ण के थे, वे तो उनके साथ नाच रहे थे। कृष्ण परम पुरुष, पूर्ण आत्मा हैं और वे गोपियों के आध्यात्मिक शरीरों के साथ नृत्य करते थे। अतः कृष्ण पर किसी प्रकार का आरोप नहीं लगाया जा सकता।
रास-नृत्य समाप्त होने पर रात्रि (ब्रह्मा की रात, जो अत्यधिक दीर्घ होती है जैसाकि भगवद्गीता में बताया गया है) ब्रह्म मुहूर्त में बदल गई। ब्रह्ममुहूर्त सूर्योदय से लगभग डेढ़ घंटे पूर्व होता है। यह संस्तुति की जाती है कि लोग इसी समय बिस्तर से उठें (जगें) और शौचकृत्य से निवृत्त होकर मंगल आरति तथा हरे कृष्ण मंत्र का कीर्तन करें।
आध्यात्मिक कार्यों को सम्पन्न करने के लिए यह समय बहुत उपयुक्त होता है। जब ऐसा शुभ मुहूर्त आ गया, तो कृष्ण ने गोपियों से जाने के लिए कहा। यद्यपि गोपियाँ उनका संग छोड़ने के लिए तैयार न थीं, किन्तु वे आज्ञाकारिणी थीं। ज्योंही कृष्ण ने उन्हें घर जाने का आदेश दिया, त्योंही वे वहाँ से घर लौट गईं।
शुकदेव गोस्वामी इस रासलीला प्रसंग को यह इंगित करते हुए समाप्त करते हैं कि जो कृष्ण (जो स्वयं विष्णु) तथा गोपियों (जो उनकी शक्ति की विस्तार हैं) की लीलाओं को किसी अधिकारी से सुनता है, वह सबसे भयानक रोग, काम, से मुक्त हो जाता है।
यदि कोई सचमुच रासलीला को सुनता है, तो विषयी जीवन की काम-वासनाओं से मुक्त हो जाता है और आध्यात्मिक ज्ञान के परम पद को प्राप्त होता है। चूँकि लोग प्राय: मायावादियों से यह लीला सुनते हैं और वे स्वयं मायावादी होते हैं, अतः वे विषयी जीवन में अधिकाधिक लिप्त होते जाते हैं।
बद्धजीव को रासलीला नृत्य किसी प्रामाणिक गुरु से सुनना चाहिए और उससे शिक्षा प्राप्त करनी चाहिए, जिससे वह सारी स्थिति समझ सके। इस प्रकार वह आध्यात्मिक जीवन के सर्वोच्च पद पर पहुँच सकता है, अन्यथा वह लिप्त बना रहता है।
भौतिक विषयवासना क्या है ?
भौतिक विषयवासना (काम) एक प्रकार का मानस रोग है और इस रोग का उपचार करने के लिए यह संस्तुति की जाती है कि किसी निर्विशेषवादी धूर्त से न सुनकर प्रामाणिक गुरु से सुना जाये। यदि सही व्यक्ति से सही ज्ञान सुना जाये,तो स्थिति सर्वथा भिन्न होगी।
शुकदेव गोस्वामी ने श्रद्धान्वित शब्द का प्रयोग उस व्यक्ति के लिए किया है, जिसे आध्यात्मिक जीवन की शिक्षा प्राप्त हुई होती है। श्रद्धा तो शुरुआत है। जो श्रीभगवान् के रूप में कृष्ण में अपनी श्रद्धा विकसित कर लेता है, वह रासलीला सुना सकता है और सुन भी सकता है।
अनुशृणुयात् शब्द का अर्थ क्या है ?
शुकदेव ने भी अनुशृणुयात् शब्द का उपयोग किया है। मनुष्य को गुरु-परम्परा से श्रवण करना चाहिए। अनु का अर्थ हैं "पालन करते हुए’ और ‘‘सदैव।” अतः मनुष्य को सदैव गुरु-परम्परा का पालन करना चाहिए और किसी इधर-उधर के पेशेवर वाचक, मायावादी या सामान्य व्यक्ति से नहीं सुनना चाहिए।
अनुशृणुयात् का अर्थ है कि मनुष्य को ऐसे प्रामाणिक व्यक्ति से ही सुनना चाहिए, जो गुरु-परम्परा में हो और सदेव कृष्णभावनामृत में लगा रहता हो। जब मनुष्य इस प्रकार से सुनता है, तो उसका प्रभाव अवश्य होता है।रासलीला के श्रवण से रासलीला मनुष्य आध्यात्मिक जीवन के सर्वोच्च पद को प्राप्त होता है।
भक्तिम् तथा पराम् का अर्थ क्या है ?
शुकदेव गोस्वामी दो विशिष्ट शब्द, भक्तिम् तथा पराम् व्यवहृत करते हैं। भक्तिम् पराम् का अर्थ है नवदीक्षित अवस्था से ऊपर भक्ति सम्पन्न करना। जो लोग मात्र मन्दिर-पूजा की ओर आकृष्ट होते हैं, किन्तु भक्ति के दर्शन को नहीं समझते वे नवदीक्षित अवस्था में होते हैं। ऐसी भक्ति पूर्णावस्था में नहीं होती।
भक्ति की पूर्णावस्था या प्रेमाभक्ति भौतिक कल्मष से पूर्णतया मुक्त होती है। कल्मष का साबासी घातक पहलू काम या विषयी जीवन है। भक्तिम् पराम् अर्थात् भक्ति इतनी शक्तिप्रद है कि जो जितना ही इस ओर अग्रसर होता है, वह उतना ही भौतिक जीवन के आकर्षण से मुक्त होता जाता है।
जो वास्तव में रासलीला को सुनकर लाभ उठाता है, वह निश्चित रूप से दिव्य पद को प्राप्त करता है। उसके हृदय की सारी वासना जाती रहती है।
रासनृत्य की रात को ब्रह्मा की रात क्यों कहा जाता है ?
श्रील विश्वनाथ चक्रवर्ती ठाकुर ने इंगित किया है कि भगवद्गीता के अनुसार ब्रह्मा के दिन तथा ब्रह्मा की रात (43,00000 x 1,000 ) सौर वर्ष के तुल्य होते हैं। विश्वनाथ चक्रवर्ती ठाकुर के अनुसार रासनृत्य ब्रह्मा की रात्रि जितनी दीर्घ अवधि तक चला, किन्तु गोपियाँ इसे समझ न पाईं।
उनकी इच्छापूर्ति के लिए कृष्ण ने रात्रि को बढाकर इतनी दीर्घ बना दिया। कोई यह पूछ सकता है कि यह कैसे सम्भव हुआ? विश्वनाथ चक्रवर्ती ठाकुर हमें स्मरण दिलाते हैं कि यद्यपि कृष्ण एक छोटी-सी रस्सी में बँध गये, किन्तु उन्होंने अपने मुख के भीतर अपनी माता को सारा ब्रह्माण्ड दिखाया।
यह कैसे सम्भव हो सका? इसका उत्तर यह है कि वे अपने भक्तों की प्रसन्नता के लिए कुछ भी कर सकते हैं। इसी प्रकार चूँकि गोपियाँ कृष्ण के साथ आनन्द भोग करना चाहती थीं, अत: उन्हें दीर्घकाल तक सान्निध्य प्राप्त करने का अवसर प्रदान किया गया। ऐसा उन्होंने अपने वचन के अनुसार किया।
जब कृष्ण ने यमुना के चीरघाट में स्नान करती गोपियों का चीरहरण किया, तो उन्होंने वादा किया था कि भविष्य में किसी रात वे उनकी इच्छा पूर्ण करेंगे।
अतः गोपियों ने एक रात कृष्ण के साथ अपने प्राणप्रिय पति के रूप में बिताई, किन्तु वह रात कोई साधारण रात न थी। वह ब्रह्मा की रात थी और लाखों वर्षों तक चलती रही। कृष्ण के लिए सब कुछ कर सकना सम्भव है, क्योंकि वे परम अधिष्ठाता है।