Bhagwaan ko aana hi hoga (heartwarming story ) दिल को छूने वाली एक करुणामई कहानी -भगवान् को आना ही होगा vishva gyaan

जय श्री राधे श्याम 

हर हर महादेव प्रिय पाठकों ! 
कैसे है आप लोग, 
आशा करते है आप सभी सकुशल होंगे। 
भगवान् शिव का आशीर्वाद हमेशा आपको प्राप्त हो।  


योगक्षेम का अर्थ क्या है?

अप्राप्तकी प्राप्तिका नाम 'योग' है। और प्राप्तकी रक्षाका नाम 'क्षेम' है। पारमार्थिक योगक्षेमका अभिप्राय यह है कि परमात्माकी प्राप्ति के मार्ग में जहाँ तक हम आगे बढ़ चुके हैं, उस प्राप्त साधन सम्पत्ति की तो भगवान् रक्षा करते हैं और भगवान्‌ की प्राप्ति में जो कुछ कमी है, उसकी पूर्ति भी भगवान् कर देते हैं।


कहानी
भगवान् को आना ही होगा 



एक ईश्वर भक्त ब्राह्मण थे। जिन्हे भगवद गीता का पूरा ज्ञान था।वे अर्थ को समझते हुए हमेशा समस्त गीता का बार-बार पाठ करते रहते ,हमेशा भगवान्‌ के नाम का जप करते रहते तथा उनके स्वरूप का ध्यान करने में ही अपना सारा समय बिता दिया करते थे। वे एकमात्र सिर्फ भगवान् पर  ही निर्भर थे। 

जीविका की तो बात ही क्या कहे, उन्हे अपने खाने-पीने की भी परवाह नहीं थी । उनके माता-पिता परलोक सिधार चुके थे। वे तीन भाई थे। तीनों ही विवाहित थे। वे सबसे बड़े थे और दो भाई छोटे थे। दोनों छोटे भाई ही पुरोहितवृत्तिके द्वारा गृहस्थीका सारा काम चलाया करते थे। 

एक दिनकी बात है, दोनों छोटे भाइयोंने बड़े भाईसे कहा- 'आप कुछ  समय जीविका के लिये भी निकाला करें तो अच्छा रहे।' बड़े भाई ने कहा -'जब सबका भरण-पोषण करने वाले विश्वम्भर भगवान् सर्वत्र सब समय मौजूद हैं तब अपनी जीविका की चिन्ता करना तो निरा बालकपन है। 

उन्होंने अपने भाइयों को गीता का उपदेश देते हुए कहा -भगवान् ने गीता के नौवें अध्याय के बाईसवें श्लोक में खुद इसका जिम्मा लिया है।उस श्लोक में लिखा है की वे सब समय मौजूद हैं। 


भगवद गीता का बाईसवाँ श्लोक

अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जनाः पर्युपासते। 

तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम् ॥ 


अर्थ -जो असत्य की कामना करते हैं उनको मृत्यु मिलती है।सत की कामना करने वाले जो स्वर्ग चाहते है वे कुछ समय के लिये स्वर्ग जाते है और पुण्यों के समाप्त होने पर दोबारा फिर मृत्युलोक मे आते है।

लेकिन जो अनन्य प्रेमी परमेश्वर का निरंतर चिन्तन करते हुये निस्काम भाव से भजते है उन लोगो का योगक्षेम भगवान कृष्ण खुद प्राप्त करते है।

योगक्षेमं वहाम्यहम्  इसका  अर्थ  है-उनके योग की सुरक्षा की सारी जिम्मेदारी मैं स्वयं लेता हूँ। ऐसा कृष्ण कह रहे है।

मित्रो -निष्काम भाव से कृष्ण को भजने वाले की पूरी जिम्मेदारी भगवान कृष्ण अपने ऊपर ले लेते है।

I wish we were also flutes / The pure love of the gopis/काश हम भी बांसुरी होती/गोपियों का निर्मल प्रेम


क्या भगवान् अपने वचनों को पूरा करते है ?

इसलिये 'भाई ! हम लोगोंको तो बस, अपने भगवान् पर ही निर्भर रहना चाहिये। वे ब्रह्मासे लेकर क्षुद्रातिक्षुद्र जीव-परमाणु तक- सभी का भरण-पोषण करते हैं। फिर जो उनके भरोसे रहकर नित्य- निरन्तर उन्हींका स्मरण-चिन्तन करता है, उसका योगक्षेम चलानेके लिये तो वे वचनबद्ध ही हैं। 

हम लोगों को तो नित्य गीताका अध्ययनाध्यापन और निरन्तर श्रद्धा-प्रेमपूर्वक भगवान का भजन - स्मरण ही करना चाहिये ।' इस पर दोनों भाइयोंने कहा- बड़े भईया ! आपका कहना तो ठीक है, पर जीविकाके लिये कुछ भी चेष्टा किये बिना, भगवान् किसीको घर बैठे ही नहीं दे जाते।'

बड़े भाईने विश्वासके साथ उत्तर दिया- ‘श्रद्धा-विश्वास हो तो घर बैठे भी भगवान् दे सकते हैं।' दोनों छोटे भाइयोंने कुछ झुंझलाकर कहा- 'बड़े भाई  ! बातें बनाने में कुछ नहीं लगता। हम लोग कमाकर लाते हैं तब घर का काम चलता है। आप केवल पड़े-पड़े श्लोक रटना और बड़ी-बड़ी बातें बनाना जानते हैं। 

आपको पता ही नहीं, हम लोग कितना परिश्रम करके कुछ जुटा पाते हैं। आप जब हम लोगों से अलग होकर घर चलायेंगे, तब पता लगेगा; तब हम देखेंगे कि जीविका के लिये प्रयत्न किये बिना आपका काम कैसे चलता है।' 

बड़े भाईने धीरजके साथ कहा- भाई !  तुम लोग यही ठीक समझते हो तो बहुत आनन्द। मुझे अलग कर दो। मैं किसी पर भाररूप होकर नहीं रहना चाहता। भगवान् किस प्रकार मेरा निर्वाह करेंगे, इसे वे खूब जानते हैं।' इसपर दोनों भाई निश्चिन्त से होकर बोले-'बहुत ठीक है। 

कल ही हम सबको अपने-अपने हिस्सेके अनुसार बंटवारा कर लेना चाहिये।' बड़े भाईने कहा- 'जिस प्रकार तुमलोग उचित समझो, उसी प्रकार कर सकते हो; मेरी ओर से कोई आपत्ति नहीं है। मैं तो तुम लोगों की राजी में ही राजी हूँ। 

दूसरे ही दिन दोनों भाइयोंने, जो कुछ सामान-सम्पत्ति थी, सबके तीन हिस्से कर दिये। ब्राह्मण भक्तके हिस्सेमें एक छोटा-सा कच्चा मकान, कुछ नकद रुपये और कुछ साधारण गहने-कपड़े तथा रसोईके बर्तन आदि आये। 

तीसरे हिस्सेकी यजमानों की वृत्ति भी उनके हिस्से में दे दी गयी। पर यजमानों का यह हाल था कि उनके पास यदि कोई पुरोहित चला जाता तो भले ही उनसे कुछ ले आता; घर बैठे पुरोहित महाराज को कोई याद नहीं करता। 

इस प्रकार जब तीनों भाई अलग-अलग हो गये, तब उस ब्राह्मण भक्तने अपनी पत्नीसे कहा-'मेरे भाइयों ने हम लोगो को जो कुछ भी दिया है, वह बहुत ही संतोष जनक है, किंतु अब हमें इस बात का पूरा ध्यान रखना चाहिये कि हम केवल भगवान् पर ही निर्भर करें। 

किसीके भी घर जाकर कभी भी याचना न करें और न किसी के देने पर ही कुछ ग्रहण करें। भगवान् स्वयं योगक्षेम वहन करने वाले हैं, उसी से काम चलाना चाहिये।' वे ही हमारा योगक्षेम चलायेंगे। 

ब्राह्मणी ईश्वर की भक्त और पतिव्रता थी। उसने पति की बात बड़े आदरके साथ स्वीकार की। उसने सोचा- 'अभी तो निर्वाहके लिये कुछ हाथ में है ही। इसके समाप्त होनेके बाद स्वामी जैसा उचित समझेंगे, अपने-आप ही व्यवस्था करेंगे।' 

वे भगवद्भक्त ब्राह्मण प्रातःकाल चार बजे ही उठते और शहरसे एक मील दूर एक तालाब पर जाकर शौच-स्नान करते। फिर संध्या- वन्दनके अनन्तर भगवान्‌ की मानस-पूजा, जप, ध्यान करके सम्पूर्ण गीताका भाव सहित अर्थको समझते हुए पाठ किया करते; इसके बाद दिनमें ग्यारह बजे घर लौटकर भोजनादि करते। 

भोजन करनेके पश्चात् पुनः दोपहर में एक बजे वापस वहीं तालाब पर जाकर जप, ध्यान, स्वाध्याय करते। फिर सायंकाल चार बजे शौच-स्नान करके संध्या- वन्दन करते। तदनन्तर मानस-पूजा करके सत्-शास्त्रों का श्रद्धापूर्वक स्वाध्याय करते। 

सूर्यास्तके बाद भगवान् के नामका जप और उनके स्वरूप का ध्यान किया करते थे। अन्त में रात को आठ बजे के बाद घर लौटकर भोजन करते और फिर अपनी पत्नीसे सदालाप करके दस बजे शयन किया करते । 

krishna ne gopiyon ke vastr kyon churaaye /गोपियों का चीर हरण

उनकी साध्वी धर्मपत्नी भी दोनों समय पतिको भोजन कराकर स्वयं भोजन करती और प्रतिदिन पतिको नमस्कार करना, उसकी सेवा-शुश्रूषा करना, उनकी आज्ञाका पालन करना तथा ईश्वरका भजन-ध्यान करना अपना परम कर्तव्य समझती थी। इस प्रकार दोनों का समय बीतता था। प्रतिदिन व्यय तो होता ही था। 

कुछ दिनोंमें उनके पास जो कुछ रुपये-पैसे थे, सब समाप्त हो गये। पत्नीने स्वामीसे कहा- 'रुपये सब पूरे हो गये हैं।' पतिने पूछा- 'क्या गहने-कपड़े भी समाप्त हो गये ?' पत्नीने कहा- 'नहीं।' 

इस पर ब्राह्मणी ने सोचा- अभी गहने-कपड़ों से काम चलाने की स्वामी की सम्मति है। अत एव वह उन्हें बेचकर घरका काम चलाने लगी। पर वे गहने-कपड़े भी कितने दिन के थे। वे भी समय पर समाप्त हो गये। फिर एक दिन पत्नीने कहा- 'गहने-कपड़े भी सब  समाप्त हो गये हैं।' 

पति ने कहा- 'कोई चिन्ता नहीं, अभी बर्तन-भाँड़े और मकान तो हैं ही।' इससे ब्राह्मणी ने समझा कि अभी स्वामीकी सम्मति मकान और बर्तनों से काम चलाने की है। उसने प्रसन्नता से मकान को बेच दिया और वे दूसरे किरायेके मकान में चले गये। 

कुछ दिन इससे काम चला। इसके बाद बर्तन-भाँड़े भी बेच दिये, पर उनसे क्या होता। अन्त में ब्राह्मणी के पास तन ढाँकने के लिये एक साड़ी बची और ब्राह्मण देवताके लिये एक धोती और एक गमछा बचा।

एक दिन ब्राह्मण देवता जब प्रातः चार बजे जंगलकी ओर जाने लगे, तब पत्नीने बड़े विनीत-भावसे हाथ जोड़कर निवेदन किया- 'स्वामिन् ! अब सब कुछ शेष हो गया है। घर तो किराये का है, बर्तन-भाँड़े भी सब समाप्त हो चुके हैं।

केवल आपकी यह गीताजी की पोथी, धोती, गमछा और मेरी एक साड़ी बची है। आज भोजनके लिये घरमें अन्न भी नहीं है। जो कुछ था, कल शेष हो गया। 

ब्राह्मणने इसका कुछ भी उत्तर नहीं दिया और वे सदा की भाँति जंगल की ओर चल दिये। सदा की भाँति ही पंडित जी तालाब पर गये और शौच-स्नान से निवृत्त हो उन्होंने संध्या-गायत्री-जप आदि नित्यकर्म किया। उसके अनन्तर जब वे गीताका पाठ करने लगे, तब उनके सामने वह अपना इष्ट श्लोक आया- 


अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जनाः पर्युपासते। 
तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम् ॥ 

पंडित जी  श्लोक को पढ़कर क्यों चौंक पड़े?

उस दिन पंडित जी इस श्लोक को पढ़कर चौंक पड़े और इसे पढ़ते हुए मन-ही-मन विचार करने लगे कि 'मालूम होता है, इस श्लोक में भगवान्‌ के वचन नहीं हैं, शायद क्षेपक होगा। यदि यह  भगवान् का कथन होता तो भगवान् क्या मेरी सँभाल नहीं करते? 

मैं तो सर्वथा उन्हीं पर निर्भर हूँ। उन्होंने आजतक मेरी सुधि जरा भी नहीं ली।' यह समझकर ब्राह्मणने उस श्लोकपर हरताल लगा दी और वे उस इलोकको छोड़कर गीताका पाठ करने लगे। 

ब्राह्मण देवताके हृदयके इस भाव को देखकर सर्वहृदयेश्वर (सबके मन की बात जानने वाले )  भगवान् तुरंत एक विद्यार्थी के रूपमें घोड़े पर सवार होकर ब्राह्मणके घर उनकी धर्मपत्नीके पास पहुँचे और मिठाईका एक थाल भेंटमें रखकर पूछने लगे-'गुरुजी कहाँ हैं?' 

ब्राह्मण-पत्नीने कहा- 'यहाँसे एक मील दूर एक तालाब है, वे प्रतिदिन वहाँ शौच-स्नान और नित्यकर्मके लिये जाते हैं और लगभग ग्यारह बजे लौटते हैं, अभी दस बजे हैं, उनके आनेमें एक घंटेकी देर है। आप कौन हैं और यह मिठाई किसलिये लाये हैं ?" 

विद्यार्थी ने उत्तर दिया- 'मैं पंडित जी का शिष्य हूँ और गुरुजी की तथा आपकी सेवा के लिये यह मिठाई लाया हूँ। इसे आप रख लें।' ब्राह्मण-पत्नी ने कहा- 'पंडित जी न तो किसी को शिष्य ही बनाते हैं। 

और न किसी की दी हुई वस्तु ही लेते हैं। मुझको भी उन्होंने किसीकी वस्तुको स्वीकार न करनेकी आज्ञा दे रखी है। इसलिये मैं किसी की दी हुई कोई वस्तु नहीं ले सकती। इसे आप ले जाइये।' 

विद्यार्थी ने कहा— 'आप जैसा कहती हैं, वैसा ही मैं भी मानता हूँ। वे किसी को भी शिष्य नहीं बनाते, यह बात भी सही है। मुझको छोड़कर उन्होंने न तो किसी को शिष्य बनाया है और न बनायेंगे ही। 

मुझपर उनकी विशेष कृपा है, इसी से मुझको उन्होंने शिष्य माना है। केवल मैं एक ही उनका शिष्य हूँ, इसके लिये मैं आपको विश्वास दिलाता हूँ। 

ब्राह्मण-पत्नीने कहा-' -'मैंने तो यह बात कभी नहीं सुनी कि उन्होंने आपको शिष्य बनाया है। मैं तो जानती हूँ कि उन्होंने किसी को शिष्य बनाया ही नहीं है, फिर मैं इस बातको कैसे मान लूँ कि आप उनके शिष्य हैं। 

चाहे जो कुछ हो, मैं इस मिठाई को किसी हालत में भी स्वीकार नहीं कर सकती। पंडितजीके लौटनेपर आप उन्हें दे सकते हैं।' विद्यार्थीने कहा-'अच्छा, यह थाली यहाँ रखी है और मेरा घोड़ा भी यहीं बँधा है। मैं लौटकर पंडित जी से मिल लूँगा।'

इस पर ब्राह्मण-पत्नीने उत्तर दिया- 'आप इस थालीको वापस ले जाइये, पंडितजीके आने पर आप फिर ला सकते हैं। मैं पंडित जी की आज्ञा के बिना इसे किसी हालत में नहीं रख सकती।' किंतु वे भगवान् तो विचित्र ठहरे। 

वे थाली को वहीं छोड़कर चल दिये। चलते समय ब्राह्मण-पत्नीने पूछा-'अपना नाम-पता तो बतला दीजिये, जिससे पंडितजी के आने पर यह मिठाई की थाली आपके घर वापस पहुँचा दी जाय ।' 

विद्यार्थीने कहा- 'वे मुझे जानते हैं। उनकी मुझ पर अत्यन्त कृपा है; क्योंकि मैं उनका एक ही शिष्य हूँ। मेरे सिवा दूसरा कोई शिष्य है ही नहीं। आप कह दीजियेगा कि आज प्रातःकाल जिसके मुँह पर आपने हरताल पोती थी, वही शिष्य आया था। इससे वे समझ जायँगे।' इतना कहकर भगवान् चलते बने। 

एक घंटेके बाद पंडितजी जंगलसे वापस लौटे और घर में प्रवेश करते ही देखा कि एक थाली मिठाई से भरी रखी है। पंडितजीने कुछ उत्तेजित-से होकर पूछा- 'यह मिठाई कहाँ से आयी, किसने दी और क्यों रखी गयी ?' 

ब्राह्मण-पत्नीने हाथ जोड़कर विनयपूर्वक उत्तर दिया— 'स्वामिन् ! मैंने नहीं रखी है। एक विद्यार्थी जबरन् इसे रख गया। वह कहता था कि मैं गुरुजी की सेवा के लिये लाया हूँ। इस पर भी मैंने स्वीकार नहीं किया। परंतु वह जबरन् छोड़कर चला ही गया।' 

ब्राह्मण ने कहा- 'तुम तो इस बातको जानती हो कि मैंने न तो आज तक किसी को शिष्य बनाया है और न बनाता ही हूँ।' पत्नीने कहा- 'यह बात सत्य है। मैंने भी उससे कहा कि न तो पंडित जी ने किसी को शिष्य बनाया है, न बनाते हैं और न बनायेंगे।' 

इस पर उसने मेरी बात का समर्थन करते हुए कहा कि 'मैं इस बातको जानता हूँ। गुरुजीने मुझको छोड़कर किसीको शिष्य नहीं बनाया और न बनायेंगे। एकमात्र मैं ही उनका शिष्य हूँ। मुझ पर उनकी विशेष दया है। इसीलिये मुझको उन्होंने शिष्य स्वीकार किया है। 

मैं विश्वास दिलाता हूँ कि यह मेरी बात सच्ची माननी चाहिये।' इसपर भी मैंने तो यही कहा कि 'मैंने यह कभी नहीं सुना कि आपको उन्होंने शिष्य बनाया है। जो भी हो, मैं उनकी आज्ञाके बिना यह भेंट नहीं रख सकती, परंतु वह रखकर चल दिया।' 

पंडितजीने कहा – 'उसका नाम-पता तो पूछना चाहिये था, जिससे उसके घर उसकी चीज वापस लौटा दी जाती।' ब्राह्मण-पत्नीने कहा- मैंने पूछा था; तब उसने यह कहा कि मुझको गुरुजी जानते हैं। 

आज प्रातःकाल ही उन्होंने मेरे मुँह पर हरताल पोती है, मुझे इतनी ही देर में वे थोड़े भूल जायँगे। आप कह दीजियेगा कि जिसके मुँहपर आज प्रातःकाल हरताल पोती थी, वही आपका एकमात्र शिष्य भेंट दे गया है। 

बस, इतना कहकर वह चला गया और कह गया कि मिठाईकी थाली यहीं रखी है, मेरा घोड़ा भी यहीं बँधा हुआ है। मैं फिर आकर गुरुजीसे मिल लूँगा।' 

यह सुनते ही पंडितजीको रोमाञ्च हो आया और वे गद्गद होकर बोले- 'ब्राह्मणी ! तुम धन्य हो। वे तो साक्षात् भगवान् थे। तुम्हारा बड़ा सौभाग्य है, जो तुमको उनके साक्षात् दर्शन हुए। मैं अविश्वासी और हतभाग्य हूँ, इसीलिये मुझको उन्होंने दर्शन नहीं दिये। 

मैंने एक दिन भी भूख सहन नहीं किया और अधीर होकर भगवान् के वचनोंपर हरताल पोत दी। गीता स्वयं भगवान् के मुख से निकली हुई है, उसपर योगक्षेमका वहन हरताल पोतना सचमुच भगवान् ‌के मुख पर ही हरताल लगाना है। आज गीताका पाठ करते समय जब यह श्लोक आया- 

अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जनाः पर्युपासते। 

तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम् ॥ 

तब मुझ अविश्वासी के मन में भगवान् के वचनों पर शङ्का हो गयी कि यदि सचमुच ये भगवान् के वाक्य होते तो वे निश्चय ही मेरा योगक्षेम वहन करते; यह क्षेपक है। यह सोचकर मैंने उसपर हरताल पोत दी। मैं बड़ा ही नीच, पापी और अविश्वासी हूँ। 

मेरे हृदयमें यदि तनिक भी धैर्य होता तो मैं ऐसा नीच काम कभी नहीं करता। वे परम दयालु भगवान् तो सदा योगक्षेम चला ही रहे हैं। सब कुछ समाप्त होने के साथ ही वे आ ही पहुँचे। 

हरताल लगाने के अपराध के कारण मैं उनके दर्शन से वञ्चित रहा। तुम शुद्ध और अनन्य भक्त तथा पतिव्रता हो। इसलिये तुम्हें दर्शन दे गये। अब तो जब तक वे नहीं आते, तब तक मुझे चैन नहीं।' इसके बाद उनकी दृष्टि बाहर की ओर गयी तो क्या देखते हैं कि घोड़ेपर भार लदा हुआ है। 

उन्होंने तुरंत जाकर भार उतारा और उसे अंदर लाकर देखने लगे। उसमें लाखों रुपयों के रत्न भरे थे, ब्राह्मण यह देखकर अपने कृत्य पर पश्चात्ताप करने लगे। वे पुनः गद्गद हो गये और प्रेममें तन्मय होकर भागवत का यह श्लोक गाने लगे- 

अहो बकी यं स्तनकालकूटं जिघांसयापाययदप्यसाध्वी । 
लेभे गतिं धात्र्युचितां ततोऽन्यं कं वा दयालुं शरणं व्रजेम ॥

अर्थ- आश्चर्यकी बात है कि पापिनी पूतनाने जिन श्रीकृष्ण को मारनेकी इच्छासे उन्हें स्तनोंमें लगाया हुआ हलाहल विष पिलाया था, वह भी माताके योग्य उत्तम गति को प्राप्त हुई; फिर उन भगवान्‌को छोड़कर हम और किस दयालुकी शरणमें जायँ।    

'मुझे धिक्कार है कि ऐसे दीनबन्धु, पतितपावन, सबका धारण-पोषण करने वाले विश्वम्भर प्रभु पर मैंने झूठा दोष लगाकर अपने को कलङ्कित किया। मैं तो अर्थका दास हूँ। यदि में सचमुच प्रभुका दास होता तो मुझे भोजनाच्छादन की चिन्ता ही क्यों होती और क्यों भगवान् मुझे संतुष्ट करने के लिये यह रत्न-राशि दे जाते। 

मैं वास्तवमें यदि भगवान् केे तत्त्व-रहस्यको जानता, मेरा उन में सच्चा प्रेम होता और मेरे मन में अर्थ की कामना न होती तो वे मुझे ये रत्न देकर क्यों भुलाते।' कहते-कहते ब्राह्मण आनन्दमुग्ध हो गये। बहुत देर होते देखकर ब्राह्मणीने कहा- 'भगवान् का दिया हुआ प्रसाद तो पा लें।' 

पंडितजी बोले-' नही ,अब तो भगवान को आना ही होगा।जब भगवान् यह कह गये हैं। कि हम आयेंगे, तब अब तो उनके आनेपर ही प्रसाद पाऊँगा।' रात ज्यादा हो गई , पर भगवान् नहीं आये। तब ब्राह्मणीने फिर कहा- 'अब तो प्रसाद पा लें।' 

पंडितजी कब मानने वाले थे, उन्होंने फिर वही बात कह दी। अब रात्रिके दस बज गये, शयन का समय हो गया और भगवान् नहीं आये, तब ब्राह्मणीने पुनः विनयपूर्वक कहा- 'प्रसाद तो पा लीजिये।' ब्राह्मणदेवता ने फिर भी प्रसाद नहीं पाया और दोनों बिना कुछ खाये ही सो गये। 

रातके ग्यारह बजे थे। दरवाजा खटखटाते हुए किसीने बड़े ही मधुर स्वरोंमें पुकारा— 'गुरुआनीजी ! गुरुआनीजी ! दरवाजा खोलिये।' ब्राह्मण-दम्पतिको अभी नींद तो आयी ही नहीं थी। सुमधुर स्वर तथा 'गुरुआनीजी' सम्बोधन सुनकर ब्राह्मणी चौंक पड़ी और आनन्दविह्वल होकर बोली– 'स्वामिन् ! लीजिये, आपके भगवान् आ गये हैं।' 

ब्राह्मणने तुरंत दौड़कर दरवाजा खोला और वे भगवान् के चरणों पर गिर  पड़े ।भगवान्ने उनको उठाकर अपने हृदयसे लगा लिया। उस समय पंडितजीकी बड़ी विचित्र दशा थी। उनका शरीर रोमाञ्चित था, नेत्रों से आँसुओं   की धारा बह रही थी, हृदय प्रफुल्लित था और वाणी गद्गद थी। 

फिर भी वे किसी तरह धीरज धरकर बोले- 'नाथ ! मैं तो एक अर्थका दास हूँ। मुझ-जैसे पामर पर भी जो आपने इतनी कृपा की; इसमें आपका परम कृपालु स्वभाव ही हेतु है। यदि मेरे भाव और आचरणोंकी ओर ध्यान दिया जाय तो आपके दर्शन तो दूर रहे, मुझे कहीं नरक में ठौर नहीं मिलनी चाहिये। 

मैंने आप-जैसे सर्वथा निर्दोष महापुरुषपर दोष लगाया-मुझ-जैसा अर्थकामी नीच शायद ही कोई होगा। मैं तो अर्थके लिये ही आपको भजता था, तभी तो आपने मेरे संतोषके लिये ये रत्न दिये हैं। 

मैं बड़ा भारी सकामी हूँ, इसीलिये तो मैंने आपको सांसारिक योगक्षेम चलाने वाला ही समझा, नहीं तो मैं पारमार्थिक योगक्षेमकी ही कामना करता  जो निष्काम भाव से केवल मात्र आप पर ही निर्भर हैं, वे तो इस योगक्षेम को भी नहीं चाहते; 

किंतु आप तो बिना उनके चाहे ही उनका योगक्षेम वहन करते हैं। मुझ-जैसे अभागे में ऐसी श्रद्धा, प्रेम, विश्वास और निर्भरता कहाँ, जो आप-जैसे महापुरुष के हेतुरहित अनन्य-शरण होता।' 

भगवान् बोले– 'इसमें तुम्हारा कोई दोष ही नहीं है। तुम तो मुझ पर ही निर्भर थे। मेरे आने में जो विलम्ब हुआ, यह मेरे स्वभाव का दोष है, पर अभी तक तुमने भोजन क्यों नहीं किया ?'

पंडितजीने कहा- 'जब आप कह गये थे कि मैं फिर आकर मिलूँगा, तब बिना आपके आये मैं कैसे भोजन करता। आप भोजन कीजिये, उसके बाद हमलोग भी प्रसाद पायेंगे।' 

भगवान्ने कहा – 'नहीं-नहीं चलो हमलोग एक साथ ही भोजन करें।' फिर ब्राह्मण-पत्नीने भगवान् का संकेत पाकर दोनों को भोजन कराया। ब्राह्मणदेवताने अत्यन्त प्रेम- विह्वल होकर प्रसाद पाया। 

भोजन के बाद भगवान् बोले 'तुम्हारी जो इच्छा हो, सो माँग लो तुम्हारे लिये कुछ दुर्लभ नहीं है।' ब्राह्मणने कहा 'जब आप स्वयं ही पधार गये, तब अब भी माँगना बाकी रहा क्या? 

नाथ! मैं तो यही चाहता हूँ कि अब तो मेरे मन में योगक्षेम की भी इच्छा न रहे और केवल आपमें ही मेरा अनन्य विशुद्ध प्रेम हो। भगवान् 'तथास्तु' कहकर अन्तर्धान हो गये। 

Three moral story/ nishkaam kee kaamana - ikkees peedhiyaan tar gayeen/तीन शिक्षा पूर्ण कहानी /भक्त की भावना। VISHVA GYAAN

इसके बाद ब्राह्मण-पत्नीने भी प्रसाद पाया। इधर जबसे उन छोटे भाइयोंने अपने ज्येष्ठ प्राता भगवद्धत ब्राह्मणको अलग कर दिया था, तबसे वे धीरे-धीरे दरिद्री और दुःखी होते चले गये। 

उनकी इतनी हीन दशा हो गयी कि न तो उनको कहींसे कुछ उधार ही मिलता था और न माँगनेपर ही। जब उन्होंने सुना कि हमारे भाई इतने धनी हो गये हैं कि उनके द्वारपर सदा याचकोंकी भीड़ लगी रहती है, तब वे भी अपने भाईके पास गये। 

परम भक्त पंडितजीने भाइयोंको आये देखकर उन्हें हृदयसे लगा लिया और उनकी कुशल-क्षेम पूछी। उन्होंने उत्तरमें कहा- 'आप-जैसे सज्जन पुरुषसे अलग होकर हमें कुशल कहाँ ? हम तो मुँह दिखाने लायक भी नहीं हैं।

 फिर भी आप हम लोगों पर दया करके प्रेमसे मिलते हैं, यह आपका सौहार्द है।' बड़े भाईने कहा- 'नहीं नहीं भैया ! ऐसा मत कहो। हम तीनों सहोदर भाई है। हमलोग कभी अलग थोड़े ही हो सकते हैं। यह तो एक होनहार थी। हमलोग जैसे प्रेमसे पहले रहा करते थे, अब भी हमें वैसे ही रहना चाहिये। 

संसार में सहोदर भाई के समान अपना हितैषी और प्रेमी कौन है ? तुम लोगों को लज्जा या पश्चात्ताप न करके पूर्ववत् ही प्रेम करना चाहिये। यह जो कुछ ऐश्वर्य देखते हो, इसमें भैया ! मेरा योगक्षेमका वहन क्या है। 

यह सब श्रीभगवान्‌ की विभूति है। जो कोई भी भगवान् पर निर्भर हो जाता है, भगवान् सब प्रकार से उसका योगक्षेम वहन करते हैं। जैसे बालक माता-पितापर निर्भर होकर निश्चिन्त विचरता है और माता-पिता ही सब प्रकार से उसका पालन-पोषण करते हैं, उसी प्रकार, नहीं-नहीं, उससे भी बढ़कर भगवान् अपने आश्रित का पालन-पोषण और संरक्षण करते हैं। 

यही क्या, वे तो अपने-आपको ही उसके समर्पण कर देते हैं। अतः तुम लोगोंको- -इस श्लोकमें कही हुई बातपर विश्वास करके नित्य-निरन्तर भगवान्का ही चिन्तन करना चाहिये तथा अर्थ और भावको समझकर नित्य श्रीगीताका अध्ययनाध्यापन करना चाहिये ।' 

इसके बाद वे दोनों भाई बड़े भाईके साथ रहकर उनकी आज्ञा के अनुसार नित्य-निरन्तर जप, ध्यान तथा गीता का पाठ करने लगे एवं थोड़े ही समय में भगवान्‌ की भक्ति करके भगवत्कृपा से भगवान् ‌को प्राप्त हो गये। 

नोट 

यह कहानी कहाँ तक सच्ची है, इसका पता नहीं है, किंतु हमें इससे यह शिक्षा ग्रहण करनी चाहिये कि भगवान् पर निर्भर होने पर भगवान् योगक्षेम का वहन करते हैं। अतः हम भी इस पर विश्वास करके भगवान् पर  निर्भर हो जायँ। सबसे उत्तम बात तो यह है कि नित्य-निरन्तर भगवान् का निष्काम भाव से चिन्तन करना चाहिये। योगक्षेम की भी इच्छा न करके भगवान्‌ में केवल अहैतुक विशुद्ध प्रेम हो, इसी के लिये प्रयत्न करना चाहिये। किंतु यदि योगक्षेम की ही इच्छा हो तो सच्चे-पारमार्थिक योगक्षेम की इच्छा करनी चाहिये। 

Heart touching sad story(Tum to gopaal ji ke putra ho) तुम तो गोपाल जी के पुत्र हो।

अप्राप्तकी प्राप्तिका नाम 'योग' है। और प्राप्तकी रक्षाका नाम 'क्षेम' है। पारमार्थिक योगक्षेमका अभिप्राय यह है कि परमात्माकी प्राप्तिके मार्गमें जहाँ तक हम आगे बढ़ चुके हैं, उस प्राप्त साधनसम्पत्तिकी तो भगवान् रक्षा करते हैं 

और भगवान्‌की प्राप्तिमें जो कुछ कमी है, उसकी पूर्ति भगवान् कर देते हैं। ऐसा भगवान् ने आश्वासन दिया है। इस प्रकार समझकर और इस पर विश्वास करके भगवान् पर निर्भर एवं निर्भय हो जायँ, भगवचिन्तनके सिवा और कुछ भी चिन्ता न करें। 

जो लोग सांसारिक योगक्षेमके लिये भगवान्‌को भजते हैं, वे भी न भजनेवालोंकी अपेक्षा बहुत उत्तम हैं; क्योंकि भगवान् ने  अर्थार्थी, आर्त आदि भक्तोंको भी उदार – श्रेष्ठ बतलाया है- 'उदाराः सर्व एवैते'  

और ज्ञानी निष्काम अनन्य भक्त को तो अपना स्वरूप ही बतलाया है; क्योंकि उस निष्कामी ज्ञानी को एक भगवान्‌ के सिवा अन्य कोई गति है ही नहीं। अतः हमको उचित है कि हम भगवान् के  निष्काम ज्ञानी अनन्य भक्त बनें; क्योंकि ऐसा भक्त भगवान्‌को अत्यन्त प्रिय है। 

भगवान को कैसे भक्त पसंद है?

भगवान् ने कहा है- 

तेषां ज्ञानी नित्ययुक्त एकभक्तिर्विशिष्यते । 

प्रियो हि ज्ञानिनोऽत्यर्थमहं स च मम प्रियः ॥

अथार्त 'उन भक्तों में नित्य मुझमें एकी भाव से स्थित अनन्य प्रेम-भक्ति- वाला ज्ञानी भक्त अति उत्तम है; क्योंकि मुझको तत्त्व से जानने वाले ज्ञानी को मैं अत्यन्त प्रिय हूँ और वह ज्ञानी मुझे अत्यन्त प्रिय है।'

प्रिय पाठकों !आशा करते है आपको पोस्ट पसंद आई होगी। विश्वज्ञान हमेशा ऐसी ही रियल स्टोरीज आपको मिलती रहेंगी। विश्वज्ञान में प्रभु श्री कृष्ण की अन्य लीलाओं के साथ फिर मुलाक़ात होगी। तब तक के लिए अपना ख्याल रखे ,खुश रहे और औरों को भी खुशियां बांटते रहें। 

जय जय श्री राधे श्याम 
धन्यवाद। 

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